मानव सभ्यता का विकास नदी घाटियों से शुरू हुआ था. आज जो मानव यहां तक पहुंचा है, उसमें नदी की अहम भूमिका रही है. जब सड़क मार्ग नहीं थे तो लोग जलमार्ग से ही यात्रा करते थे. पीने के पानी की बात हो या स्नान करने की या खेत सिंचाई की, सब कुछ नदी पर ही आधारित था. यानी नदी मानव सभ्यता के लिए ‘लाइफ लाइन’ का कार्य कर रही थी.
मिथिलावासी प्राचीन काल से ही अपनी धरोहर के प्रति कृतज्ञ रहे हैं. विशेषकर प्रकृति के प्रति यहां के लोगों में अद्भुत अनुराग है. यहां के लोगों की विशेषता है कि वह जिस किसी से उपकृत होते हैं, उसमें देवता का अंश मानकर उसकी पूजा करते हैं. यही कारण है कि यहां के लोग नदी एवं तालाब की भी पूजा करते हैं.
मिथिला में कई ऐसे अनुष्ठान हैं, जिसे नदी व तालाब के किनारे ही मनाया जाता है. जैसे छठपूजा अनुष्ठान पूरी तरह से प्रकृति को समर्पित है. इस पूजा में नदी व तालाब की सफाई भी की जाती है. साथ ही अनुष्ठान में प्रयोग होने वाली सभी सामग्री प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं से ही तैयार की जाती है.
मिथिलांचल में बहने वाली नदियों का स्रोत हिमालय है. हिमालय से होकर आने वाले पानी में हिमालय की कई तरह की औषधीय जड़ी-बुटियां पानी में मिश्रित हो जाती हैं और बहकर नदी में आती हैं. इससे नदी का पानी स्वास्थ्यवर्धक बन जाता है. इसकी पुष्टि शोध कार्यों से भी हुआ है.
वैज्ञानिक भी मानते हैं कि हिमालय में नाना प्रकार की औषधीय जड़ी-बुटियां हैं, जो नदी के पानी को स्वच्छ और निर्मल रखने में मदद करती है. किसी तरह के चर्म रोग होने पर नदी में स्नान करने से स्वत: ही बीमारी ठीक हो जाती है.
मिथिला के गांवों में कई ऐसे कुएं हैं, जहां का पानी पीने से घेघा रोग ठीक हो जाता है. यहां के लोग नदी व तालाब में स्नान करने के साथ ही सूर्य को अर्घ देते हैं. वैज्ञानिकों का मानना है कि अर्घ के माध्यम से पानी से होकर शरीर में लगने वाली सूर्य की किरण से शरीर में विटामिन-डी की प्राप्ति होती है और इससे हड्डी मजबूत होती है और लोग सेहतमंद रहते हैं.
श्रावण माह में यहां के लोग सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर गंगा जल लाकर भोले बाबा को चढ़ाते हैं. कहा जाता है कि बाबा भोलेनाथ को जल चढ़ाने से सभी तरह की मनोकामनाएं श्रद्धालुओं की पूरी होती हैं . ऐसी स्थिति में यहां के लोगों की ईश्वरवादी सोच को और बल मिलता है.
मिथिलांचल में कार्तिक माह में यहां के लोग सुबह-सुबह नदी व तालाब में स्नान करते हैं. इसके पीछे एक धारणा है कि कार्तिक में स्नान करने से पुण्य की प्राप्ति होती है, लोग स्वस्थ्य रहते हैं. कहा जाता है कि जो लड़कियां कार्तिक स्नान करती हैं और आंवला के पेड़ में पानी डालती हैं, उसे अच्छे घर-वर मिलते हैं. यानी अच्छे लड़के व संपन्न परिवार में उसकी शादी होती है और उनका जीवन खुशहाल रहता है.
मिथिला की चित्रकला पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है. यहां की चित्रकला में भी प्राकृतिक रंग का ही प्रयोग किया जाता है, न कि रासायनिक रंग का. यह दर्शाता है कि यहां के लोग किस तरह प्रकृत से जुड़े हुए हैं.
मिथिला की प्रमुख नदियां हैं-कोसी, कमला, बलान, बागमती, गंगा, गंडक, हरिद्रा, तिलयुगा, धेमुरा व गेहुमा. इन नदियों में कभी शव को नदी में नहीं बहाया जाता है. यहां दैनिक स्नान करने की परंपरा है. स्नान करते समय नदी या तालाब में मल-मूत्र त्याग करना वर्जित है.
आज देश की नदियां प्रदूषित हो चुकी हैं. मानव जीवन के लिए यह चिंता का विषय बन गया है. इसकी तुलना में मिथिलाचंल की नदियों को देखें तो यहां की नदियां आज भी स्वच्छ हैं.
13वीं सदी में मिथिला में महाकवि विद्यापति हुए थे. उन्होंने अपनी रचना ‘गंगा विनती’ में नदी के प्रति गजब का सम्मान दिखाया है. जब दुनिया को पर्यावरण व जल संरक्षण का ज्ञान भी नहीं था, उस समय उन्होंने लोगों को पर्यावरण संरक्षण के प्रति अगाह किया था. वह गंगा में स्नान के लिए प्रवेश करने पर पैर से स्पर्श को भी अपराध मानते हैं और गंगा से निवेदन करते हैं, “एक अपराध छेमब मोर जानि, परसल माय पाय तुअ पानि.” उनका आशय है, “हे मां! मैं जनता हूं कि मैं अपराध कर रहा हूं, लेकिन ये मेरी मजबूरी है कि मैं पैर से चलकर आप को अपवित्र कर रहा हूं.
इससे पता चलता है कि सीता की पावन धरती मिथिला के लोगों में पर्यावरण व नदी के प्रति कितना लगाव है.